मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

अक्षरा: शोना ! ठहर जाओ न धूप आने तक...

अक्षरा: शोना ! ठहर जाओ न धूप आने तक...

शोना ! ठहर जाओ न धूप आने तक...

17 जुलाई, 1993

कल रात नींद तो आयी पर पता नहीं कैसे-कैसे सपने आते रहे.
               मैंने सुजाता को देखा. किसी शहर में, शायद पटना.  द्वारिका भवन वाले मेरे घर का ही कोई कमरा. जर्जर हालत में.
                 मैं कहीं से आया हूँ. पापा सुजाता से कहते हैं, 'मैं जा रहा हूँ. इसे खिला कर सुला देना. मैं देख रहा हूँ, इसका रहन-सहन ठीक नहीं है, पर इससे कुछ भी कहना बेकार है. तुम देखना इसे.'
              इसके बहुत देर बाद देखता हूँ कि एक लगभग टूटी हुई-सी खाट पर सुजाता सोयी है. शायद दोपहर का समय है. उसी खाट पर एक अधेड़-सा आदमी भी सोया है. बगल में एक और खाट पर कोई बूढी महिला सोयी है.
              मुझे देखकर अचानक अधेड़ आदमी की आँखें खुल जाती हैं. वो मेरी ओर एकटक देख रहा है. तभी सुजाता नींद में ही उसकी तरफ हाथ बढ़ाने लगती है. मैं सुजाता को रोकने के लिए उसकी  तरफ तेजी से भागता हूँ. उसके पैरों को जोर से पकड़ लेता हूँ. सुजाता तब भी नहीं जागती. 
              वो आदमी मेरी तरफ देखता व्यंग्य और विद्रूपता से मुस्कुराता रहता है. उसके हाथ सुजाता की ओर बढ़ते हैं, लेकिन बीच में ही उसका हाथ मैं पकड़ लेता हूँ- " सुजाता, उठो. क्या कर रही हो ?"
              मैं सुजाता को जोर से झकझोर डालता हूँ.
             सुजाता आँखें खोलती है. मुस्कुराती है. उसके मुंह में पान भरा है, जिसकी लाली होठों से बहती हुई गालों तक आ गयी है. वो लगातार मुस्कुरा रही है.
              फिर पता नहीं क्या होता है. एक झटके में मेरी नींद खुल जाती है. लगता है जैसे सीने पर भारी बोझ रखा हो.




  

अक्षरा: शोना ! ठहर जाओ न धूप आने तक...

अक्षरा: शोना ! ठहर जाओ न धूप आने तक...